फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति का परिचय: फ्रांस की क्रांति (French Revolution) फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रांति को आगे बढ़ाया।
क्रांति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रांति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एव्ं उदार प्रजातन्त्र बने।
आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया।
फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ वातावरण तैयार किया।
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व यूरोप की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति निम्न प्रकार की थी :-
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व यूरोप की राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण
18वीं शताब्दी में केवल फ्रांस ही नहीं संपूर्ण यूरोप की राजनीतिक व्यवस्था कुलीनतंत्रात्मक थी। राज्य की संपूर्ण शक्ति कुछ थोड़े से उच्चवंशीय कुलीनों के हाथ में थी।
मंत्री, उच्च पदाधिकारी, सेनापति, प्रभावशाली सैनिक अफसर, न्यायाधीश, प्रान्तीय शासक सब उच्चवंशीय कुलीनों में से ही नियुक्त किये जाते थे। राजकीय नियम और कानून बनाते समय कुलीनों के हित का सबसे अधिक ध्यान रखा जाता था। वे सदैव अपनी ओर अपने अन्य कुलीनवंशीय साथियों की स्वार्थ पूर्ति में व्यस्त रहते थे। जनसाधारण को देश के शासन में कोई भाग नहीं लेने दिया जाता था।
1774 में लुई पंद्रहवे की मृत्यु हो गई ओर उनका पुत्र लुइर् सोलहवे के नाम से फ्रासं का शासक बना। वह साधारण जनता का हित चाहता था, परंतु आत्म-विशवास, दृढ़ता और स्थिरता की कमी के कारण वह इस दिशा में कुछ नहीं कर सका।
वह निरंकुश होते हुए भी सामन्तों और पादरियों के हाथ में कठपुतली बना हुआ था। उस समय फ्रांस में कोई विधान नहीं था तथा देश के विभिन्न प्रांतों के शासन में अत्याधिक अंतर था। कुछ प्रांतों को अधिक सुविधाएं उपलब्ध थीं, जब कि अन्य प्रांतों को अधिक कर देना पड़ता था और प्रशासनिक कठोरता को भी सहन करना पड़ता था।
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व यूरोप की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण
16वीं शताब्दी में फ्रांसीसी समाज तीन वर्गों में विभिक्त था। प्रथम वर्ग कुलीनों का, दूसरा वर्ग पादरियों का और तीसरा वर्ग साधारण जनता का था। तीनों वर्गों में प्रथम दो वर्ग शक्तिसम्पन्न और विशेशाधिकार प्राप्त प्रभावशाली वर्ग थे। इन्हें राजकीय करों की अदायगी नहीं करनी पड़ती थी।
तीसरा वर्ग साधारण जनता का था। राजकीय करों का संपूर्ण भार इसी वर्ग को वहन करना पड़ता था। इतिहासकारों ने उस काल की स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है-कुलीन युद्ध करते हैं, पादरी ईशवर की पूजा करते हैं और जनता करों की अदायगी करती है।
जो व्यक्ति जितना अधिक धनवान होता था उसे उतने ही कम कर सरकार को देने पड़ते थे। इस प्रकार उस समय के समाज के वर्गों में अमीर-गरीब, अधिकारों और स्थिति के आधार पर बहुत अधिक अंतर था।
1. कुलीन वर्ग – उस काल के यूरोपीय समाज में कुलानों और सामंतों के अधिकार असीम और प्रभाव बहुत अधिक थे। उन्हें राजपरिवार के बाद समाज के सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त था। राज्य, सेना और चर्च के सभी ऊँचे-ऊँचे पद इन्हीं को प्राप्त थे।
2. पादरी वर्ग – कुलीनों की भाँति पादरियों को भी विशेषाधिकार मिले हुए थे। इन लोगो में भी दो श्रेणियां थी। प्रथम श्रेणी के पादरी कुलीनों और सामंतों की संतान थे। चर्च से इन्हें लाखों रुपये वार्शिक की आय थी। ये भी कुलीनों की तरह राजसी ठाठ-बाट से जीवन व्यतीत करते थे।
3. साधारण वर्ग–इस वर्ग में कृशक मजदूर, कारीगर, शिल्पकार और दुकानदार आदि सम्मिलित थे। यूरोपीय जनसंख्या का 85 प्रतिशत से भी अधिक भाग साधारण वर्ग का था। इसमें लगभग 25 लाख शिल्पी, दस लाख अर्द्धदास कृशक और दो करोड़ कृशक थे। उन्हें रहने के लिए मकान, खाने के लिए भोजन और तन ढकने के लिए कपड़े तक का अभाव था। इन पर करों का भारी भार लदा था। अत: अपनी जमींदारों और चर्च तीनों को अलग-अलग कर देने पड़ते थे।
4. मध्यम वर्ग –पढ़े लिखे व्यक्तियो, डॉक्टरों, दाशर्निकों, वकीलों, लेखकों, कवियों और क्लकों आदि का एक अन्य वर्ग था जो मध्यम वर्ग के नाम से प्रसिद्ध था। इनका रहन-सहन ग्रामीण कृशकों और बाहर के शिल्पियों तथा कारीगरों से बहे तर था किन्तु इन्है। समाज और शासन दोनो में उपयुक्त स्थान प्राप्त नहीं था।
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति से पूर्व यूरोप की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण
1789 फ्राँसीसी राज्यक्रांति से पूर्व फ्रांस की आर्थिक दशा अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त थी। करों में समानता नहीं थी। सामंतों और जागीरदारों की संख्या कम होते हुए भी देश की चौथाई भूमि पर उन्हीं का अधिकार था। उन्हें राजकीय कर नहीं देने पड़ते थे। उन्हीं की तरह पादरियों ने भी देश की कुल भूमि के पाँचवे भाग पर अधिकार जमा रखा था। उन्हें भी राजकीय करों से मुक्त रखा गया था।
इस पक्रार राज्य की आय बहुत कम रह गयी थी, परंतु राज्य का व्यय बहतु बढ़ा हुआ था। आय से बढे़ व्यय की पूर्ति ऋण लेकर की जाती थी। देश का वाणिज्य व्यवसाय भी उन्नत नहीं था। देश के भिन्न-भिन्न स्थानों पर चुंगी और टाले टैक्स की दरों में बहुत अधिक अंतर था।
कारीगरों को जितना कठोर परिश्रम करना पड़ता था उतना परिश्रमिक उन्हें नहीं मिलता था। कठारे नियमों के बने होने के कारण ये लोग किसी प्रकार का आंदोलन भी नहीं कर सकते थे। इन्हीं कठिनार्इयों के कारण व्यापारिक माल का उत्पादन अधिक नहीं हो पाता था, जिससे राष्ट्रीय आय के उद्यागे -धंधां और व्यापार तथा व्यवसाय में वृद्धि नहीं हो रही थी।
निष्कर्ष: उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है की क्रांति के समय फ्रांस की प्राचीन व्यवस्था बड़ी अनियमित, अनिश्चित अहितकारी और दोषपूर्ण थी। यूरोप में प्राचीन व्यवस्था प्रचलित थी, जिसकी की मुख्य विशेषताएं थी – निरंकुश राजतंत्र, केंद्रित प्रशासन, विशेषाधिकार युक्त कुलीन वर्ग, शोषित जनसाधारण वर्ग, भ्रष्टा चर्च इत्यादि।
फ्रांस, यूरोप का एक महत्वपूर्ण देश था और इसी देश में सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाएं हुई, जो कि विश्व इतिहास में फ्रांसीसी क्रांति के नाम से प्रसिद्ध है।
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति के स्वरूप का समीक्षात्मक आकलन
फ्रांस की क्रांति की प्रकृति को क्रांति के आदर्शों, क्रांति के नेतृत्व, क्रांति की प्रगति, क्रांति के दौरान लाए गए परिवर्तनों और विश्व पर पड़े प्रभावों के प्रकाश में समझे जाने की जरूरत है। इस दृष्टि से क्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसका प्रारंभ तो कुलीन वर्ग ने किया, फिर आगे चलकर इसका नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आया।
कुछ समय के लिए यह क्रांतिकारी तत्वों के प्रभाव में रही और अंत एक सैनिक तानाशाह के साथ हुआ। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति उस विशाल नदी की तरह जो उच्च पर्वत शिखर से प्रारंभ होकर मार्ग में अनेक छोटे-मोटे पर्वतों को लांघती हुई कभी तीव्र गति से, तो मंद गति से प्रवाहमान रही।
1. क्रांति का मध्यवर्गीय स्वरूप:
1789 में हुई फ्रांस की क्रांति को एक बुर्जुआ क्रांति के रूप में देखा जा सकाता है। क्रांति के प्रथम चरण में नेतृत्व तृतीय स्टेट के बुर्जुआई तत्वों के हाथों में था। मध्यवर्गीय नेतृत्व ने निजी संपत्ति को ध्यान में रखते हुए कुछ सिद्धान्त भी बनाएं। वस्तुतः सामंतवाद के अंत की घोषणा तो कर दी गई किन्तु सामंती अधिकारों को यूं ही नहीं छोड़ दिया गया, बल्कि भूमिपतियों की क्षतिपूर्ति करने के बाद ही किसान किसी उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते थे।
नेपोलियन के सुधारों पर भी बुर्जुआई प्रभाव देखा जा सकता है। उसने बुर्जुआ हितों को संरक्षित रखते हुए अपनी विधि संहिता में संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा, कुलीनों को अपेक्षाकृत व्यापक अधिकार दिए तथा उसके व्यापारिक और वाणिज्यिक सुधारों का फायदा मध्यवर्ग को ही मिला।
इस तरह क्रांति के स्वरूप में मध्यवर्गीय तत्व दिखाई देते हैं। किन्तु पूरे क्रांति और उसके प्रभाव के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि क्रांति में मध्यवर्गीय तत्वों के साथ कृषक, मजदूर, महिलाओं की सहमागिता थी। इस तरीके से यह मात्र मध्यवर्गीय क्रांति नहीं थी अपितु एक लोकप्रिय क्रांति के रूप में इसे देखा जा सकता है।
2. विश्वव्यापी स्वरूप:
फ्रांस की क्रांति एक विश्वव्यापी चरित्र को लिए हुए थी। क्रांतिकारियों ने 1789 में मनुष्य तथा नागरिक अधिकारों की घोषणा की, जिसके तहत् कहा गया कि जन्म से समान पैदा होने के कारण सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिलना चाहिए और यह सभी देशों के लिए सभी मनुष्यों के लिए, सभी समय के लिए और उदाहरण स्वरूप सारी दुनिया के लिए हैं।
यह घोषणा सिर्प फ्रांस के लिए नहीं वरन् हर जगह के उन सभी लोगों की भलाई के लिए हैं जो स्वतंत्र होना चाहते थे तथा निरंकुश राजतंत्र एवं सामंती विशेषधिकारों के बोझ से मुक्ति पाना चाहते थे, बनाया गया था।
नेशनल एसेम्बली द्वारा 1792 ई. में कॉमपेने नामक अंगे्रज नायक को फ्रांसीसी नागरिक की उपाधि दी गई और उसे नेशनल कन्वेंशन का प्रतिनिध भी चुना गया।
इसी प्रकार क्रांति के दौरान यह विचार आया कि क्रांति को स्थायी और सुदृढ़ रखने के लिए इसे यूरोप के अन्य देशों में भी विस्तारित किया जाएं। इसमें एक ऐसे युद्ध की कल्पना की गई जिसमें फ्रांसीसी सेनाएं पड़ोसी देशों में प्रवेश कर वहां के स्थानीय क्रांतिकारियों से मिलकर राजतंत्र को अपदस्थ कर गणतंत्रों की स्थापना करती है।
3. क्रांति सुनियोजित नहीं थी:
फ्रांस की क्रांति रूसी क्रांति के समान सुनियोजित नहीं थी। वस्तुतः रूसी क्रांति बोल्शेविकों द्वारा सुनियोजित थी और उसका उद्देश्य सत्ता हासिल कर सर्वहारा का शासन स्थापित करना था लेकिन फ्रांस की क्रांति शुरू से अंत तक घटनाओं और परिस्थितियों का शिकार रहीं और घटनाएं इस तरह से नहीं घटी जिस तरह से क्रांतिकारियों ने चाहा बल्कि घटनाओं ने क्रांतिकारियों को अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया।
स्टेट्स जनरल की बैठक में यदि तृतीय स्टेट की बात अन्य स्टेट्स ने मान ली होती तो क्रांति का रूख दूसरा होता। इसी प्रकार आतंक का राज्य और डायरेक्टरी के शासन भी सुनियोजित ढंग से नहीं चले। इस दृष्टि से यह क्रांति अव्यवस्थित थी।
4. ‘सामाजिक क्रांति‘ के रूप में:
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति के मूल में तत्कालीन फ्रांसीसी समाज की दुरावस्था भी एक महत्वपूर्ण कारक थी। पूरा समाज विशेषाधिकार प्राप्त और अधिकार विहीन वर्गों में विभक्त था। कृषकों की स्थिति करों के बोझ से खराब थी तो दूसरी तरफ उन्हें सामंतों के अत्याचार तथा चर्च के हस्तक्षेप से भी शोषण का शिकार होना पड़ता था।
इन स्थितियों ने क्रांति को राह दिखाई और क्रांतिकारियों ने इसी असमानता के विरूद्ध आवाज बुलंद की और स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का नारा दिया। क्रांति के दौरान ही सामंतवाद के अंत की घोषणा हुई, विशेषाधिकारों को खत्म किया गया।
5. अधिनायकवादी स्वरूप:
फ्रांसीसी क्रांति या फ्रांस की क्रांति में सर्वसाधारण की भागेदारी रहीं थी किन्तु उनके हितों को नजरंदाज करके क्रांति ने अधिनायकवाद का रूप धारण कर लिया जिसमें किसी एक व्यक्ति के सिद्धान्तों और इच्छाओं की प्रधानता थी। वस्तुतः क्रांति के दौरान रॉबस्पियर के नेतृत्व में एक तानाशाही सरकार या अधिनायकतंत्र की स्थापना हुई थी और आगे चलकर नेपालियन ने भी अधिनायकतंत्र की स्थापना की।
6. प्रगतिशील क्रांति के रूप में:
फ्रांस की क्रांति वहां की पुरातन व्यवस्था में व्याप्त तमाम विकृतियों, विसंगतियों एवं बुनियादी दोषों के विरूद्ध एक सशक्त प्रतिक्रिया थी। क्रांति ने निरंकुश राजतंत्र असमानता पर आधारित फ्रांसीसी समाज, विलासितापूर्ण पादरी वर्ग तथा आर्थिक दिवालियेपन के संकट से जूझ रहे कुशासन का अंत कर फ्रांस में प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया। इस दृष्टि से इसे दृष्टि से इसे प्रगतिशील क्रांति के रूप में देखा जा सकता है।
इतना ही नहीं मानवधिकारों की घोषणा स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व को अवगत कराया परिणामस्वरूप विश्व के कई देशों में राजनीतिक अधिकारों की मांग को लेकर जनांदोलन होने लगे।
इटली एवं जर्मनी के एकीकरण की भावना को प्रोत्साहन मिला। धर्म और राजनीति के पृथक्करण का मुद्दा पहली बार इस क्रांति के दौरान उठा। राज्य और राजनीति धर्म से अलग किए गए।
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फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति के लिए उत्तरदाई कतिपय के कारण
फ्रांस की क्रांति या फ्रांसीसी क्रांति के लिए उत्तरदाई कतिपय के कारणों कारणों का विश्लेषण निम्न प्रकार से है:-
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र था जो राजत्व के दैवी सिद्धान्त पर आधारित था। इसमें राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे और राजा स्वेच्छाचारी था। लुई 14वें के शासनकाल में (1643-1715) निरंकुशता अपनी पराकाष्ठा पर थी। उसने कहा- “मैं ही राज्य हूँ”। वह अपनी इच्छानुसार कानून बनाता था। उसने शक्ति का अत्यधिक केन्द्रीयकरण राजतंत्र के पक्ष में कर दिया। कूटनीति और सैन्य कौशल से फ्रांस का विस्तार किया। इस तरह उसने राजतंत्र को गंभीर पेशा बनाया।
लुई 14वें ने जिस शासन व्यवस्था का केन्द्रीकरण किया था उसने योग्य राजा का होना आवश्यक था किन्तु उसके उत्तराधिकारी लुई १५वां एवं लूई १६वाँ पूर्णतः अयोग्य थे। लुई 15वां (1715-1774) अत्यंत विलासी, अदूरदर्शी और निष्क्रिय शासक था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लेकर देश की आर्थिक स्थिति को भारी क्षति पहुँचाई। इसके बावजूद भी वर्साय का महल विलासिता का केन्द्र बना रहा। उसने कहा कि मेरे बाद प्रलय होगी।
2. सामाजिक परिस्थितियाँ:
क्रांति के कारणों को सामाजिक परिस्थितियों में भी देखा जा सकता है। फ्रांसीसी समाज विषम और विघटित था। वह समाज तीन वर्गों/ स्टेट्स में विभक्त था। प्रथम स्टेट्स में पादरी वर्ग, द्वितीय स्टेट्स में कुलीन वर्ग एवं तृतीय स्टेट्स में जनसाधारण शामिल था। पादरी एवं कुलीन वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त था जबकि जनसाधारण अधिकार विहीन था।
(a) प्रथम स्टेट: पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था-उच्च एवं निम्न। उच्च पादी वर्ग के पास अपार धन था। वह “टाइथ” नामक कर वसूलता था। ये शानों शौकत एवं विलासीपूर्ण जीवन बिताते थे, धार्मिक कार्यों में इनकी रूचि कम थी। देश की जमीन का पांचवा भाग चर्च के पास ही था और ये पादरी वर्ग चर्च की अपार सम्पदा का प्रयोग करते थे। ये सभी प्रकार के करों से मुक्त थे इस तरह उनका जीवन भ्रष्ट, अनैतिक और विलासी था। अतः उच्च पादरियों से ये घृणा करते थे और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति रखते थे। क्रांति के समय इन्होंने क्रांतिकारियों को अपना समर्थन दिया।
(b) द्वितीय स्टेट: कुलीन वर्ग द्वितीय स्टेट में शामिल था और सेना, चर्च, न्यायालय आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में इनकी नियुक्ति की जाती थी। एतदां के रूप में उच्च प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति होती थी और ये किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूलते थे और शोषण करते थे। यद्यपि रिशलू और लुई 14वें के समय कुलीनों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया था किन्तु आगे लुई 15वें और 16वें के समय से उन्होंने अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। यह कुलीन वर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित थे।
(c) तृतीय स्टेट: तृतीय स्टेट के लोग जनसाधारण वर्ग से संबद्ध थे जिन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इनमें मध्यम वर्ग किसान, मजदूर, शिल्पी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी समस्याएं थी।
3. आर्थिक परिस्थितियाँ:
फ्रांस की आर्थिक अवस्था संकटग्रस्त थी। राज्य दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया था। वस्तुतः फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई 14वें के लगातार युद्धों के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के बाद लुई 15वें ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया जिससे राजकोष पर बोझ और बढ़ा और अंततः लुई 16वें ने अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की आर्थिक दशा को और भी जर्जर बना दिया।
सम्राट, साम्राज्ञी और उनके परिवार पर राज्य की अत्यधिक राशि खर्च की जाती थी। वर्साय का राजमहल राजकोष के लूटपाट का साधन बना था। दूसरी तरफ कर प्रणाली असंतोषजनक थी। विशेषाधिकारों के कारण सम्पन्न वर्ग कर से मुक्त था तथा गरीब किसान जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न था, एकमात्र करदाता था। इस तरह राजकोष की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गई थी। सरकार फ्रांस में आय के अनुसार व्यय करने के बजाय व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी।
4. बौद्धिक कारण:
18 वीं शताब्दी में फ्रांस में बौद्धिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। फ्रांस के दार्शनिक तथा विचारकों ने अपने विचारों, लेखों और भाषणों से देश में क्रांति का वातावरण तैयार कर दिया। इन्होंने अपने उग्रवादी और क्रांतिकारी विचारों से फ्रांस की जनता को उत्साहित और उत्तेजित किया। फ्रांसीसी दार्शनिकों जैसे मॉण्टेस्क्यू, वाल्टेयर और रूसो ने फ्रांस की राजनीतिक दशा के दोषों, चर्च के भ्रष्टाचार और सामाजिक कुरीतियों पर प्रकाश डाला और देशवासियों को क्रांति करने के लिए प्रेरणा प्रदान की।
निष्कर्ष: फ्रांस में सामाजिक आर्थिक और अन्य कारणों में क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की और लुई 16वी की अयोग्यता ने क्रांति को उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया
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