भारत में सांप्रदायिकता की समस्या स्पष्ट करें। भारत, विविध संस्कृतियों और परंपराओं का देश, लंबे समय से धार्मिक और सांप्रदायिकता के जटिल मुद्दे से जूझ रहा है। देश की जीवंत टेपेस्ट्री हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म और अन्य धर्मों के धागों से बुनी गई है, जो मान्यताओं की एक समृद्ध पच्चीकारी बनाती है।
हालाँकि, इस रंगीन सतह के नीचे एक गहरी समस्या छिपी हुई है जिसने दशकों से देश को परेशान किया है – धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक तनाव का बढ़ना। जैसे-जैसे भारत आधुनिकता और आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ रहा है, यह धार्मिक विभाजनों से प्रेरित हिंसा और भेदभाव की घटनाओं से प्रभावित होता जा रहा है।
भारत एक बहू-धर्मी और बहू-आस्थावादी देश है, परंतु भारतीय समाज में कभी-कभी लोंगों के बीच हिंसा और नफरत का माहौल भी पैदा होता है। जो लोग इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा में सम्मिलित होते हैं वे धर्म को नैतिकता और मानवता का आधार नहीं समझते हैं, बल्कि धर्म का इस्तेमाल हथियार के रूप में अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए करते हैं । सांप्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है, क्यूँकि इसका आधार ही धार्मिक विद्वेष पर टिका होता है । यह स्थिति सांप्रदायिक संस्था और धार्मिक संस्था की दूरी को बढ़ाती है।
सांप्रदायिकता के विशेष चरित्र निम्नलिखित होते हैं:
- यह रूढ़िवादिता पर टिका होता है
- यह दूसरों को अलग समझता है औरएक सांप्रदायिक अपने धर्म को दूसरों के धर्म से महान समझता है।
- यह असहनशीलता पर आधारित होता है ।
- यह दूसरे धर्मों के खिलाफ नापसंदगी को बढ़ावा देती है ।
- यह दूसरे धर्मों के आस्था और मूल्यों को खत्म करने की कोसिश करती है ।
- यह दूसरे समुदाय के खिलाफ हिंसा जैसे अतिवादी रुख अपनाती है।
सांप्रदायिकता ने भारतीय समाज को बाँट रखा है। यह रूढ़िवादी सिद्धांत,दूसरे धर्मों के प्रति नफरत, ऐतिहासिक तथ्यों से खिलवाड़ और सांप्रदायिक हिंसा का कारक है।
सांप्रदायिकता की उत्पत्ति: सांप्रदायिकता की अवधारणा बहुत पुरानी नहीं है । इस संबंध में की गयी शोध से यह पता चलता है, की प्राचीन और मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिकता की समस्या नहीं थी । सांप्रदायिकता मध्यकालीन समय के अवशेषों का बुरा नतीजा नहीं है । सांप्रदायिकता का वर्तमान रूप ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के शासन और भारतीय समाज के कुछ तबको के प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सामने आया है । सांप्रदायिकता एक नयी अवधारणा है जो औपनिवेशिक काल से शुरू हुई और इसका कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं है।
राष्ट्रवाद की सोच के साथ सांप्रदायिकता भी भारतीय समाज में आगे आयी जिसके परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ। सांप्रदायिकता भारत में नस्लीय राष्ट्रवाद और फासिस्ट जनाधिकारवादी का ही दूसरा रूप प्रतीत होता है । यह सोच वर्तमान की सच्चाईयों को नकारता है और एक आदर्श समय की परिकल्पना करता है । जो की अतीत और भविष्य का मिला जुला एक ऐसे समाज की बात करता है जिसमें सिर्फ एक समूह विशेष की गौरव गाथा का बखान हो।
वस्तुतः यह एक मिथक की रचना करते हैं जिसमें दूसरे समूह को कमतर माना जाता है और इस तरह सांप्रदायिकता की बुनियाद राखी जाती है। मुस्लिम सांप्रदायिकता, मध्ययकालीन मुस्लिम साम्राज्य और प्रभुत्व की बात कर अपनी श्रेष्ठता दर्शाता है । सिख्ख सांप्रदायिकता, महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल को गलत तरीके से ‘खालसा शासन’ बताकर सिख्खों की श्रेष्ठता साबित करना चाहती है।
भारत में प्रमुख फासिस्टवादी ताकत ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’के मत से लैस है । वह ‘बहुसंख्यक समुदाय’ के शासन की अनोखी परिकल्पना बनाते हैं जो की बहुसंख्यक को अपनी राजनीतिक संपत्ति मानते हैं । यह हिन्दू सांप्रदायिकता दूसरे समूह से सांस्कृतिक समर्पण की मांग करती है।
राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता: यदि 20 वीं सदी राष्ट्रवाद का था तो 21वीं सदी वैश्वीकरण का है। हांलाकि राष्ट्र और राष्ट्रवाद एक साथ अप्रासंगिक नही हुए हैं । भौगोलिक अर्थों में राष्ट्र – राज्य का महत्व अब भी बना हुआ है परंतु राज्य कि अवधारणा और उसका मनोभाव लगातार कमजोर हुआ है । दोनों ही धर्म में आस्था रखने वाले और साथ ही धर्मनिरपेक्षता के बड़े समर्थक थे । यह मात्र एक नीति नहीं बल्कि उनके लिए दृढ़विस्वास था कि समाज के लिए धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी है। यह उन दोनोंऔर उस समय का राजनीतिक आग्रह था जिसने कि दोनों समुदायों को स्वतन्त्रता संग्राम में साथ जोड़ा।
दुर्भाग्यवश उस समय हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक ताकतों के द्वारा देश के बँटवारे कि मांग भी बलवती हो गयी थी और जिसका फाइदा अंग्रेजों ने उठाया । देश का बंटवारा एक एसी घटना थी जिससे आज भी सांप्रदायिक ताकतों को मिथक रचने और सांप्रदायिकता फैलाने में मदद मिलती है । उदाहरणस्वरूप बाल ठाकरे जैसे राजनीतिक कहते हैं कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ कि नीति तब तक जारी रहेगी जब तक कि इनको वोट देने का हक बना रहेगा।
वे सोचते हैं कि मुस्लिम मात्र वोटबैंक हैं इसलिए राजनीतिक पार्टियां उनके तुष्टीकरण में लगी हुई हैं, इसलिए मतदान का अधिकार छीन लेने पर सब समस्या खत्म हो जाएगी । यह कुछ नहीं बल्कि सिर्फ मुस्लिम विरोधी विद्वेष है । इस देश में जाति और जनजाति आधारित वोटबैंक कि राजनीति नहीं होती है क्या?
यह तर्क लागू कर हम दलितों के मतदान अधिकार को समाप्त करने कि बात कर सकते हैं? राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ सांप्रदायिक ताक़तें मुस्लिमो को राष्ट्र विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं । यदा-कदा यह बयान सुनने को मिलता रहता है कि मोदी विरोधी या गौ मांस खाने वाले पाकिस्तान चले जाएँ । राष्ट्र प्रेम कि नयी परिभाषा गढ़ी जा रही ह , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा दिया जा रहा है । यह स्थिति सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली है।
सांप्रदायिक हिंसा: सन 1947 से पहले हुई सभी सांप्रदायिक हिंसा के पीछे मुख्य वजह अंग्रेजों कि बांटो और राज करो कि नीति थी । लेकिन आजादी के बाद सांप्रदायिक हिंसा के लिए दोनों पक्षों के विशिष्ट वर्ग के कुछ लोग भी जिम्मेदार हैं । आजाद भारत में सांप्रदायिक हिंसा के कि कारण हैं । सांप्रदायिक हिंसा, सांप्रदायिकता का सबसे खराब चेहरा है।
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