भारत में सामाजिक परिवर्तन की चुनौती के रूप में विस्थापन की चर्चा

भारत में सामाजिक परिवर्तन की चुनौती के रूप में विस्थापन की चर्चा

जब से मुल्क में विकास का कंक्रीट मॉडलपरवान चढ़ा, तभी से पलायन सुरसामुख की तरह विस्तारित हुआ। सौ साल पहले बनी राजधानी दिल्ली को उगाने के लिये पहली बार इतने हजार लोगों को बुन्देलखण्ड, राजस्थान से हॉंककर दिल्ली लाया गया था।

उसके बाद देश की आजादी की पहली घटना ही रक्तरंजित विस्थापन की थी। इसी का परिणाम है कि देश की लगभग एक तिहाई आबादी 31.16 प्रतिशत अब शहरों में रह रही हैं।

विस्थापन

भारत में सामाजिक परिवर्तन की चुनौती के रूप में विस्थापन

भारत में इस समय कोई 3600 बाँध हैं, इनमें से 3300 आजादी के बाद ही बाँधे गए। अनुमान है कि प्रत्येक बाँध की चपेट में औसतन बीस हजार लोगों को घर-गाँव, रोटी-रोज़गार से उजाड़े गए। यानी कोई पौने सात करोड़ लोग तो शहरों के लिये बिजली या खेतों के लिये पानी उगाहने के नाम पर विस्थापित हुए। 

घर-गाँव छोड़कर अधर में लटकने का दर्द देखना हो तो बस्तर में देखें- सरकारी मिलिशय सलवा जुड़ुममें फँस कर कई हजार लोग राहत शिविरों में आ गए। कई हजार करीबी आन्ध्र प्रदेश या उड़ीसा में चले गए। अब वे ना तो घर के रहे ना घाट के। हर तरफ मौत है, गरीबी है और सबसे बड़ी विडम्बना इन शिविरों में वे अपनी बोली, संस्कृति, नाच, भोजन, नाम सब कुछ बिसरा रहे हैं। 

एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी ओर खाकी वाले। ठीक इसी तरह का विस्थापन व पलायन आतंकवाद ग्रस्त कश्मीर का है। वहाँ के कश्मीरी पंडित जम्मू के राहत शिविरों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। इसी तरह आतंकवाद के कारण पलायन के किस्से उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी सामने आते हैं। 

कर्नाटक का नागरहाले हो या फिर म.प्र. का पन्ना संरक्षित वन क्षेत्र, हर जगह कई हजार आदिवासियों को जंगल के नाम पर खदेड़ दिया गया। यही नहीं 19 राज्यों में 237 स्पेशल एकोनॉमिक जोन यानी सेज के नाम पर एक लाख 14 हजार लोगों को जमीन से बेदखल करने का आँकड़ा सरकारी है। इन लोगों के खेतों में काम करने वाले 84 हजार लोगों के बेराजगार होने का दर्द तो मुआवजे के लायक भी नहीं माना गया। 

मजदूरी या रोज़गार के लिये घर छोड़ने के हर साल पाँच लाख से ज्यादा मामले बुन्देलखण्ड, राजस्थान, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं। इनके यहाँ या तो पर्याप्त खेती की ज़मीन नहीं है, या खेती लाभ का धंधा रह नहीं गई, या फिर सामन्ती तत्व पूरी मजदूरी नहीं देते या फिर मेहनत-मजदूरी करने से सामाजिक-शान को चोट पहुँचती है। 

कई हजार पढ़े-लिखे लोग अपने इलाके-राज्य में ठीक-ठाक रोजगार का अवसर ना मिलने के कारण महानगरों की ओर आते हैं और इनमें से आधे कभी लौटते नहीं हैं। 2011 की जनगणना के आँकड़े गवाह हैं कि गाँव छोड़कर शहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड़ 70 लाख लोग शहरों के बाशिन्दे हैं। 

सन् 2001 और 2011 के आँकड़ों की तुलना करें तो पाएँगे कि इस अवधि में शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गाँवों की आबादी नौ करोड़ पाँच लाख ही बढ़ी। 

देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहुँच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिशत रह गई है। जबकि गाँवों की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देश की कुल आबादी का दो-तिहाई। 

यदि आँकड़ों को गौर से देखें तो पाएँगे कि देश की अधिकांश आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहाँ का जीडीपी शहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है।

यही कारण है कि गाँवों में जीवन-स्तर में गिरावट, शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोज़गार की वैसे तो अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार सन्धि की धारा 11 में कहा गया है कि दुनिया के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का अधिकार है। 

दुखद है कि इतनी बड़ी संख्या में पलायन हो रही आबादी के पुनर्वास की भारत में कोई योजना नहीं है, साथ ही पलायन रोकने, विस्थापित लोगों को न्यूनतम सुविधाएँ उपलब्ध करवाने व उन्हें शोषण से बचाने के ना तो कोई कानून है और ना ही इसके प्रति संवेदनशीलता

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